Chand ke paar ek Chabi - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

चाँद के पार एक चाबी - 1

चांद के पार एक कहानी

अवधेश प्रीत

1

जब वह मुझे पहली बार मिला था, तब हमारी दुनिया में मोबाइल का आगमन नहीं हुआ था। जब वह दूसरी बार मिला, तब हमारी जिन्दगियों में मोबाइल हवा, धूप,, पानी की तरह शामिल हो चुका था।

पहली बार जब वह मुझे मिला था, तो हम दोनों के बीच एक चिट्ठीभर परिचय था। उसने सुदूर एक कस्बा होते गांव से मुझे अंतर्देशीय पत्र लिख भेजा था, जिसमें उसने अपने बारे में जितना अस्फुट-सा कुछ लिखा था, उससे ज्यादा उसने मेरी कहानी के बारे में लिखा था। कह सकते हैं, उसने उस पत्र में मेरी कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया तो दी थी, लेकिन वह सिर्फ प्रतिक्रिया भर नहीं थी। प्रतिक्रिया के बहाने उसने अपनी पीड़ा को भी शब्द दिया था। हालांकि उसके शब्द बहुत सधे, संतुलित, गढ़े, कढ़े और भारी-भरकम नहीं थे। लेकिन उन शब्दों में निहित उसकी भावनाएं गहरे अर्थ खोल रही थीं । मुझे तब ध्ीरे-धीरे उसकी भावनाओं की ताकत समझ में आई थी और मुझे लगा था, हमारी लपफ्पफाजियां कितनी कृत्रिम और अक्षम हैं, कि हम जिसे कहने के लिए इतने शीर्षासन करते हैं, उसे कहने के लिए उसके पास कुछ अनगढ़ शब्द थे और संभवतः बहुत सीमित, पिफर भी उसकी भावना कहीं ज्यादा उद्वेलित करने वाली थी 1 मुझे समझ में आ गया था, कि एक लेखक और पाठक के बीच संबंध् शब्दों का नहीं, उस स्वर का होता है, जो दोनों छोरो पर सापफ-सापफ सुनाई पड़े।

पहली बार जब वह मुझे मिला था, तब वह नायक नहीं था। नायक हो जाने जैसी कोई बात मुझे उसमें नजर भी नहीं आई थी। वह पहली बार मुझे उन्हीं दिनों मिला था, जब हमारे पास मोबाइल का वजूद तो दूर, हम इस शब्दावली तक से अनभिज्ञ थे। तब हमारे घरों में चिट्ठियां आती थीं। हम चिट्ठियां भेजते थे और इन चिट्ठियों के आने-जाने के दरम्यान डाकिये का इंतजार करते थे।

चिट्ठीभर परिचय

ऐसे ही किसी इंतजार भरे दिन में उसकी अंतर्देशीय चिट्ठी मिली थी। पता के स्थान पर जो लिखावट थी वह अनगढ़ तो थी ही, अक्षरों का आकार भी कापफी बड़ा था। पहली ही नजर में यह अंदाज लग गया था कि पत्रा-लेखक या तो कम पढ़ा-लिखा है या उसने अक्षरों को चुन-चुनकर लिखने में महारत हासिल नहीं की है। उस चिट्ठी के प्रति मेरे भीतर कोई उत्सुकता, कोई आकर्षण नहीं पैदा हुआ था। सच कहूं तो उस दिन डाक से आई कई चिट्ठियां नामी लेखकों की थीं और उससे भी ज्यादा गर्व की बात यह थी, कि उनमें एक चिट्ठी एक बड़े आलोचक की थी 1 उस आलोचक ने तो मेरी कहानी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए मुझसे मेरे कहानी संग्रहों तक की मांग की थी, ताकि वह समग्र रूप से मेरी कहानियों पर लिख सके । कुछ नामी लेखकों ने तो मुझे नई पीढ़ी का सबसे समर्थ और संभावनाशील कथाकार बताया था और मेरे उज्ज्वल भविष्य की कामना भी की थी। ऐसे पत्रा रोज आ रहे थे और मैं हर रोज कुछ ज्यादा ही ध्न्य-ध्न्य हुआ जा रहा था।

उस दिन भी ध्न्य-ध्न्य होता मैं उस अंतर्देशीय-पत्रा को बड़ी देर तक खोलने-पढ़ने का वक्त नहीं निकाल पाया और जब उस पर नजर पड़ी, तब तक मैं जमीन से कुछ उफपर उठा हुआ था। ठीक इसी वक्त वह अंतर्देशीय-पत्रा पफड़पफड़ाते हुए जमीन पर जा गिरा था। मैने झुककर उस पत्रा को उठाया और एक बार उसे उलट-पुलट कर देखा। उसकी पीठ पर यानी प्रेषक वाले भाग पर प्रेषक का नाम नहीं था। हां, ढिबरी, जिला समस्तीपुर जरूर लिखा था। तब मैं ढिबरी नामक किसी जगह को नहीं जानता था और जब जाना, तब उसी के जरिये जाना। मैं आज भी नहीं जानता कि ढिबरी नामक कोई जगह है या नहीं। लेकिन जैसे मुझे उस दिन, जिस दिन उसका पत्रा मिला था, यह विश्वास था, कि वह ढिबरी का रहने वाला है, आज भी यह विश्वास है कि वह ढिबरी का ही रहनेवाला है और ढिबरी है जरूर।

ढिबरी से आये उस अंतर्देशीय-पत्रा को मैने बेहद सावधनी से खोला और उसमें, जो कुछ भी लिखा था, उसे उतनी ही सावधनी से पढ़ गया, क्योंकि सावधनी से नहीं पढ़ता तो उसे ठीक-ठाक समझ पाना मुश्किल होता और उसकी भावना को समझना तो और भी मुश्किल होता, लिहाजा मेरी सावधनी ने सब कुछ आसान कर दिया। आपकी आसानी के लिए यहां मैं उसके पत्रा का सार-संक्षेप दे रहा हूं।

सर, प्रणाम!

मेरा नाम पिन्टू कुमार है। मैं ढिबरी का रहनेवाला हूं। यह एक गांव है और छोटा-मोटा बाजार है। यहां पढ़ने-वढ़ने की ज्यादा सुविध नहीं है। एक हाई स्कूल है, जिसमें लाइब्रेरी भी नहीं है। हमारे एक शिक्षक हैं शिव प्रसाद बाबू। उनसे ही कभी-कभार कोई किताब, पत्रिका पढ़ने को मिल जाती है। हम आपकी कहानी ‘नई इबारत’ जिस पत्रिका में पढ़े वह भी शिव प्रसाद बाबू से लेकर ही पढ़े। यह कहानी हमको बहुत अच्छी लगी। कहानी को पढ़ते-पढ़ते लगा कि आप हमारी कहानी ही कह रहे हैं। एक-एक घटना सच्ची। एक-एक बात वास्तविक । हम तो पूरी कहानी एक ही सांस में पढ़ गये। मुशहरों की जिन्दगी नरक है, सर! लोग मुशहरों को इंसान नहीं समझते। जो इस नरक से निकलना चाहता है, उसके सामने बहुत मुसीबत है। इतनी मुसीबत कि इस नरक से निकलने की कोई हिम्मत ही नहीं करता। आप इस सच्चाई को दुनिया के सामने ले आये, यह हमको बहुत अच्छा लगा। आपको बहुत-बहुत ध्न्यवाद सर!

आपका पाठक

पिन्टू कुमार, ढिबरी।

इस पत्रा से कुछ बातें पहलीबार सापफ हुई कि उसका नाम पिन्टू कुमार है, कि उसे मेरी कहानी ‘नई इबारत’ इसलिए पसन्द आई कि उसमें उसके जैसे लोगों की जिन्दगी का सच चित्रित किया गया था, कि वह इस बात से खुश था कि मैं इस कहानी के जरिए एक सच्चाई दुनिया के सामने ले आया था। लेकिन ठहरिए, यह उससे पहला परिचय भर था। अभी उससे पहली मुलाकात बाकी थी।

उससे पहली मुलाकात कब हुई, ठीक-ठीक तो याद नहीं। लेकिन इतना याद है कि तब तक उसकी स्मृति ध्ुंध्ली पड़ चुकी थी। यहां तक कि उसके पत्रा में कही गई बातें भी विस्मृत हो चुकी थीं। इस बीच न कभी उसका पत्रा आया, न ही मैने उसके किसी पत्रा की अपेक्षा की। जाहिरन, इस बीच कापफी वक्त गुजर गया। संभवतः दो वर्ष। ऐसे ही बीतते वर्ष की किसी एक सुबह उससे अचानक मुलाकात हुई।

उससे पहली मुलाकात

गर्मियों के जाने और सर्दियों के आने का कोई दरमियाना दिन था, जब सुबह चटख उजली थी और हवा जुंबिशों से भरी थी। मेरे भीतर कोई कहानी मचल रही थी और मैं भीतर तक लरजा जा रहा था। पता नहीं, यह मौसम का असर था या मिजाज की पिफतरत कि मुझमें कोई प्रेम कहानी जनमती जान पड़ रही थी। जरखेज जजबातों के बीच कोई झरना, कोई पहाड़, बपर्फ की झरती पफुहियां, देवदार के पेड़, गुलमोहर, अमलतास के पफूल, स्मृतियों से गलबहियां करते कालिदास के ‘मेघदूतम’ से उफदे-उफदे बादल और अचानक तेज होती बारिश, बारिश में भीगता समय और स्मृतियों से झांकती नायिका और उसके कंध्े पर हाथ रखता नायक, पीछे मुड़कर देखती नायिका और किसी छलिये-सा गायब हो चुका नायक, मन की घाटियों में उतरा सन्नाटा, काॅटेज से सरकती शाम की ध्ूप, गहरी उंसास लेती शिवालिक की पहाड़ियां छुपा-छुपाई कर रही थीं और मैं यह निश्चित था कि यह कहानी किसी भी वक्त लिखना शुरू कर सकता हूं।

ऐसे रोमानी समय की उस सुबह पिन्टू कुमार का आगमन हुआ।

दस्तक बहुत ध्ीमी थी जैसे कोई संकोच से भरा हो । संकोच और मेरे दरवाजा खोलने के बीच, जो शख्स खड़ा था, वह औसत कद-काठी लेकिन सापफ रंग का एक लड़का था, जिसने नीले रंग की हापफ शर्ट और खाकी रंग की पैंट पहन रखी थी। पहली ही नजर में यह स्कूल ड्रेस की तस्दीक थी और मुझे लगा कि सरकारी स्कूल का यह लड़का कोई चंदा-वंदा मांगने आया होगा। मैंने उसके चेहरे पर सख्त निगाह डालते हुए रूखे स्वर में सवाल पूछा, ‘क्या है?’

वह मेरे सख्त सवाल और मुद्रा से विचलित होने के बजाय उसी विनम्रता से हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए बोला, ‘सर, मैं पिन्टू कुमार हूं। आपकी कहानी ‘नई इबारत’ पर मैंने आपको पत्रा लिखा था।’

मैं थोड़ा ढीला पड़ा। अपनी स्मृति पर जोर दिया और सचमुच वह पत्रा मुझे याद आ गया, ‘ढिबरी से?’

पहचान लिए जाने की खुशी में उसकी आंखें चमकीं। उसने सिर हिलाया। मुझे लगा, अपने प्रिय लेखक से मिलने का रोमांच उसे मेरे दरवाजे तक खींच लाया है। लिहाजा उसे अन्दर आमंत्रित करते हुए मैंने पूछा, ‘कैसे-कैसे आना हुआ, पिन्टू कुमार?’

‘बस सर, आपसे मिलने चला आया।’ वह ड्राइंगरूम में खड़ा, संकोच से गड़ा हुआ था।

मैंने सोपफे की ओर इशारा कर उसे बैठने को कहा। वह बैठ गया। मैंने गौर किया, उसकी आंखें ड्राइंगरूम का मुआयना कर रही थीं।

उसके सामने बैठते हुए मैंने पूछा, ‘क्या करते हो तुम?’

‘सर, अभी मैट्रिक पास किया है।’ उसकी आंखें मेरे चेहरे पर टिक गई थीं।

‘तो आगे क्या इरादा है?’ मैंने अगला सवाल किया।

‘इंटर में नाम लिखाना है, सर!’ उसने अटकते हुए जवाब दिया, ‘इसीलिए यहां आया हूं।’

‘यहां कोई रहता है?’

‘हां, सर, पिताजी रहते हैं।’

‘पिताजी, क्या करते हैं?’

‘सर, वह रिक्शा चलाते हैं। यहीं मुसल्लहपुर हाट में रहते हैं।’ बगैर किसी झिझक के उसने बताया।

उसका यह सच्चापन अच्छा लगा। मन में उसके प्रति सहानुभूति भी जागी। मैंने उसे प्रोत्साहित करने की गरज से कहा, ‘पिन्टू, एडमिशन ले लो। पढ़ाई करो। मेरी मदद की जरूरत हो तो बताना।’

वह जवाब देता, इससे पहले ही अन्दर से पत्नी की आवाज आई, ‘चाय तैयार है।’

मैं उठकर अन्दर चला गया। एक ट्रे में दो कप चाय और एक गिलास पानी लेकर लौटा तो देखा, वह बुकशेल्पफ के सामने खड़ा किताबों के ‘टाइटल’ पढ़ रहा था। मुझे चाय की ट्रे लेकर आता देख वह पुनः सोपफे पर जा बैठा।

मैंने ट्रे सेंट्रर टेबुल पर रखते हुए कहा, ‘चाय पियो!’

‘सर!’ इस बार मुझे उसकी आवाज डूबती-सी लगी, ‘मैं उसी जाति से हूं, जिस पर आपने वह कहानी लिखी थी!’

मुझे जैसे बिजली का-सा झटका लगा। इस वक्त जबकि मैं उसके लिए चाय और पानी लेकर आया था, उसने यह बात क्यों कही? समझना मुश्किल नहीं था। मुश्किल था तो स्वयं को इस शर्मिन्दगी से उबारना। उसने एक झटके में मेरे आभिजात्य को निर्वसन कर दिया था। उसके पक्ष में लिखे तमाम लिखे को उसने जैसे आईना दिखा दिया था। मैं उसके कठघरे में था। अन्दर बहुत कुछ टूट-पफूट होती रही और पिन्टू कुमार के रूप में एक सोलह-सत्राह साल का लड़का साबुत मेरे सामने चुनौती बना बैठा था। वह अपनी जाति के शर्म के साथ संकोच से भरा था और चाय पीने का मेरा आग्रह सकते में सुन्न पड़ा था।

मैंने खुद को बटोरते हुए साहस जुटाया, ‘पिन्टू, चाय पियो।’

उसने मुझे इस तरह देखा गोया वह यकीन कर लेना चाहता हो कि मैंने जो कहा है, वह होशो-हवास में ही कहा है।

मेरे होंठो पर स्नेहिल मुस्कान तैरी । शायद उसे यकीन आ गया कि मेरा उसे चाय पीने के लिए कहना कोई छद्म नहीं है। उसके संकोच को दूर करने के लिए मैंने स्वयं पानी का गिलास उठाकर उसकी ओर बढाया, ‘पानी पियोे?’

उसने उसी संकोच के साथ गिलास लिया और पानी पीने लगा । एक ही सांस में गिलास खाली करते देख लगा, वह बड़ी देर से प्यासा रहा होगा। मैंने पूछा, ‘और पानी लोगे?’

‘नहीं सर।’ खाली गिलास रखता वह तृप्त-सा जान पड़ा। उसका संकोच ध्ीरे-ध्ीरे तिरोहित हो रहा था। उसने चाय का कप उठाया और मुंह से लगाकर सुड़का। आवाज ड्राइंग रूम में भर-सी गई। मुझे याद आया, बचपन में सुड़कने की आवाज पर पिता जी अक्सर डांट लगाते थे, ‘गंदी आदत!’

इस वक्त, जबकि वह उसी सुड़कती आवाज में चाय पी रहा था, मेरे भीतर गुदगुदी-सी छूटी और जी में आया मैं भी चाय सुड़क कर पिउफं। लेकिन चाहकर भी ऐसा कर पाना संभव नहीं हुआ। मैं ध्ीरे-ध्ीरे चाय ‘सिप’ कर रहा था, जबकि उसने चाय तेजी से खत्म कर ली थी।

खाली कप हाथ में लिए उसने आग्रह किया, ‘सर, पानी दीजिए तो कप धे दूं।’

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